॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
विदुरजीके
प्रश्र
श्रीशुक
उवाच -
एवं
ब्रुवाणं मैत्रेयं द्वैपायनसुतो बुधः ।
प्रीणयन्निव
भारत्या विदुरः प्रत्यभाषत ॥ १ ॥
विदुर
उवाच ।
ब्रह्मन्
कथं भगवतः चिन्मात्रस्याविकारिणः ।
लीलया
चापि युज्येरन् निर्गुणस्य गुणाः क्रियाः ॥ २ ॥
क्रीडायां
उद्यमोऽर्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यतः ।
स्वतस्तृप्तस्य
च कथं निवृत्तस्य सदान्यतः ॥ ३ ॥
अस्राक्षीत्
भगवान् विश्वं गुणमय्याऽऽत्ममायया ।
तया
संस्थापयत्येतद् भूयः प्रत्यपिधास्यति ॥ ४ ॥
देशतः
कालतो योऽसौ अवस्थातः स्वतोऽन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा
स युज्येताजया कथम् ॥ ५ ॥
भगवानेक
एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।
अमुष्य
दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा कर्मभिः कुतः ॥ ६ ॥
एतस्मिन्मे
मनो विद्वन् खिद्यतेऽज्ञानसङ्कटे ।
तन्नः
पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—मैत्रेयजी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुरजी ने उन्हें अपनी
वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा ॥ १ ॥
विदुरजी
ने पूछा—ब्रह्मन् ! भगवान् तो शुद्ध बोधस्वरूप, निर्विकार
और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का
सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? ॥ २ ॥ बालक में तो कामना और
दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है, इसी से वह खेलने के
लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान् तो स्वत: नित्यतृप्त—पूर्णकाम और सर्वदा असङ्ग हैं, वे क्रीडा के लिये भी
क्यों सङ्कल्प करेंगे ॥ ३ ॥ भगवान् ने अपनी गुणमयी माया से जगत् की रचना की है,
उसीसे वे इसका पालन करते हैं और फिर उसी से संहार भी करेंगे ॥ ४ ॥
जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्था से, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी लोप नहीं होता, उनका मायाके साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है ॥ ५ ॥ एकमात्र ये भगवान् ही
समस्त क्षेत्रों में उनके साक्षीरूप से
स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकारके कर्मजनित
क्लेशकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥ ६ ॥ भगवन् ! इस अज्ञानसङ्कट में पडक़र मेरा मन
बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मनके इस महान् मोह को कृपा
करके दूर कीजिये ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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