॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१३)
उद्धव
और विदुर की भेंट
नूनं
नृपाणां त्रिमदोत्पथानां
महीं मुहुश्चालयतां चमूभिः ।
वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशोऽपि
उपैक्षताघं भगवान् कुरूणाम् ॥ ४३ ॥
अजस्य
जन्मोत्पथनाशनाय
कर्माण्यकर्तुर्ग्रहणाय पुंसाम् ।
नन्वन्यथा
कोऽर्हति देहयोगं
परो गुणानामुत कर्मतंत्रम् ॥ ४४ ॥
तस्य
प्रपन्नाखिललोकपानां
अवस्थितानां अनुशासने स्वे ।
अर्थाय
जातस्य यदुष्वजस्य
वार्तां सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ ४५ ॥
(विदुरजी
कहरहे हैं) यद्यपि कौरवोंने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान्ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट
राजाओं को भी मारकर अपने शरणागतों का दु:ख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जातिके मदसे अंधे होकर कुमार्गगामी
हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओंसे पृथ्वी को कँपा रहे थे ॥ ४३ ॥ उद्धवजी !
भगवान् श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं; फिर भी दुष्टों
का नाश करनेके लिये और लोगोंको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म
हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान्की तो बात ही क्या—दूसरे जो लोग गुणोंसे पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा
कौन है, जो इस कर्माधीन देहके बन्धनमें पडऩा चाहेगा ॥ ४४ ॥
अत: मित्र ! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरणमें आये हुए समस्त लोकपाल और
आज्ञाकारी भक्तोंका प्रिय करनेके लिये यदुकुलमें जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरिकी बातें सुनाओ ॥ ४५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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