॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट११)
उद्धव
और विदुर की भेंट
अपि
स्वदोर्भ्यां विजयाच्युताभ्यां
धर्मेण धर्मः परिपाति सेतुम् ।
दुर्योधनोऽतप्यत
यत्सभायां
साम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या ॥ ३६ ॥
किं
वा कृताघेष्वघमत्यमर्षी
भीमोऽहिवद्दीर्घतमं व्यमुञ्चत् ।
यस्याङ्घ्रिपातं
रणभूर्न सेहे
मार्गं गदायाश्चरतो विचित्रम् ॥ ३७ ॥
कच्चिद्
यशोधा रथयूथपानां
गाण्डीव धन्वोपरतारिरास्ते ।
अलक्षितो
यच्छरकूटगूढो
मायाकिरातो गिरिशस्तुतोष ॥ ३८ ॥
यमावुतस्वित्तनयौ
पृथायाः
पार्थैर्वृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव ।
रेमात
उद्दाय मृधे स्वरिक्थं
परात्सुपर्णाविव वज्रिवक्त्रात् ॥ ३९ ॥
(विदुरजी
उद्धवजी से पूछ रहे हैं) महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्णरूप दोनों
भुजाओं की सहायता से धर्ममर्यादा का न्यायपूर्वक पालन करते हैं न ? मय दानव की बनायी हुई सभा में इनके राज्यवैभव और दबदबे को देखकर
दुर्योधनको बड़ा डाह हुआ था ॥ ३६ ॥
अपराधियोंके
प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेनने सर्पके समान दीर्घकालीन क्रोधको छोड़ दिया है
क्या ?
जब वे गदायुद्धमें तरह-तरहके पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरोंकी धमकसे धरती डोलने लगती थी ॥ ३७ ॥ जिनके बाणोंके जालसे
छिपकर किरातवेषधारी, अतएव किसीकी पहचानमें न आनेवाले भगवान्
शङ्कर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियोंका सुयश
बढ़ानेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न ? अब तो
उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे ? ॥ ३८ ॥ पलक जिस प्रकार
नेत्रोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्तीके पुत्र
युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्तीने ही जिनका लालन-पालन किया है,
वे माद्रीके यमज पुत्र नकुल-सहदेव कुशलसे तो हैं न ? उन्होंने युद्धमें शत्रुसे अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्रके मुखसे अमृत निकाल लायें ॥ ३९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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