॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
ब्रह्माजी
का भगवद्धामदर्शन और भगवान्
के
द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश
श्रीभगवानुवाच
।
त्वयाहं
तोषितः सम्यग् वेदगर्भ सिसृक्षया ।
चिरं
भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम् ॥ १९ ॥
वरं
वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाञ्छितम् ।
ब्रह्मञ्छ्रेयः
परिश्रामः पुंसां मद्दर्शनावधिः ॥ २० ॥
मनीषितानुभावोऽयं
मम लोकावलोकनम् ।
यदुपश्रुत्य
रहसि चकर्थ परमं तपः ॥ २१ ॥
प्रत्यादिष्टं
मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते ।
तपो
मे हृदयं साक्षाद् आत्माऽहं तपसोऽनघ ॥ २२ ॥
सृजामि
तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः ।
बिभर्मि
तपसा विश्वं वीर्यं मे दुश्चरं तपः ॥ २३ ॥
श्रीभगवान्ने
कहा—ब्रह्माजी ! तुम्हारे हृदयमें तो समस्त वेदोंका ज्ञान विद्यमान है। तुमने
सृष्टिरचनाकी इच्छासे चिरकालतक तपस्या करके मुझे भली-भाँति सन्तुष्ट कर दिया है।
मनमें कपट रखकर योगसाधन करनेवाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते ॥ १९ ॥ तुम्हारा
कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझसे माँग लो।
क्योंकि मैं मुँहमाँगी वस्तु देनेमें समर्थ हूँ। ब्रह्माजी ! जीवके समस्त
कल्याणकारी साधनोंका विश्राम—पर्यवसान मेरे दर्शनमें ही है ॥
२० ॥ तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जलमें मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की
है, इसीसे मेरी इच्छासे तुम्हें मेरे लोकका दर्शन हुआ है ॥
२१ ॥ तुम उस समय सृष्टिरचनाका कर्म करनेमें किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसीसे
मैंने तुम्हें तपस्या करनेकी आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप ! तपस्या मेरा हृदय है
और मैं स्वयं तपस्याका आत्मा हूँ ॥ २२ ॥ मैं तपस्यासे ही इस संसारकी सृष्टि करता
हूँ, तपस्यासे ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्यासे
ही इसे अपनेमें लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लङ्घ्य शक्ति है ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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