॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०६)
उद्धव
और विदुर की भेंट
इत्थं
व्रजन् भारतमेव वर्षं
कालेन यावद्गतवान् प्रभासम् ।
तावच्छशास
क्षितिमेक चक्रां
एकातपत्रामजितेन पार्थः ॥ २० ॥
तत्राथ
शुश्राव सुहृद्विनष्टिं
वनं यथा वेणुज वह्निसंश्रयम् ।
संस्पर्धया
दग्धमथानुशोचन्
सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम् ॥ २१ ॥
तस्यां
त्रितस्योशनसो मनोश्च
पृथोरथाग्नेरसितस्य वायोः ।
तीर्थं
सुदासस्य गवां गुहस्य
यत् श्राद्धदेवस्य स आसिषेवे ॥ २२ ॥
इस
प्रकार भारतवर्ष में ही विचरते-विचरते जब तक वे (विदुर जी) प्रभासक्षेत्र में
पहुँचे,
तब तक भगवान् श्रीकृष्ण की सहायतासे महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी का
एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे ॥ २० ॥ वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओं के
विनाश का समाचार सुना, जो आपस की कलह के कारण परस्पर लड़-भिडक़र
उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़ से उत्पन्न
हुई आगसे बाँसोंका सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे शोक करते हुए
चुपचाप सरस्वतीके तीरपर आये ॥ २१ ॥ वहाँ उन्होंने त्रित, उशना,
मनु, पृथु, अग्रि,
असित, वायु, सुदास,
गौ, गुह और श्राद्ध- देवके नामोंसे प्रसिद्ध
ग्यारह तीर्थोंका सेवन किया ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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