॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - चौथा
अध्याय..(पोस्ट०५)
उद्धवजीसे
विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना
मन्त्रेषु
मां वा उपहूय यत्त्वं
अकुण्ठिताखण्डसदात्मबोधः ।
पृच्छेः
प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्तः
तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥ १७ ॥
ज्ञानं
परं स्वात्मरहःप्रकाशं
प्रोवाच कस्मै भगवान् समग्रम् ।
अपि
क्षमं नो ग्रहणाय भर्तः
वदाञ्जसा यद् वृजिनं तरेम ॥ १८ ॥
इत्यावेदितहार्दाय
मह्यं स भगवान् परः ।
आदिदेश
अरविन्दाक्ष आत्मनः परमां स्थितिम् ॥ १९ ॥
(उद्धवजी
भगवान् से कहरहे हैं) देव ! आपका स्वरूपज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर
भी आप सलाह लेनेके लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्योंकी तरह बड़ी सावधानीसे मेरी
सम्मति पूछा करते थे,
प्रभो ! आपकी वह लीला मेरे मनको मोहित-सा कर देती है ॥ १७ ॥
स्वामिन् ! अपने स्वरूपका गूढ़ रहस्य प्रकट करनेवाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान
आपने ब्रह्माजीको बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो
मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी इस संसार-दु:खको सुगमतासे पार
कर जाऊँ’ ॥ १८ ॥ जब मैंने इस प्रकार अपने हृदयका भाव निवेदित
किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे अपने
स्वरूपकी परम स्थितिका उपदेश दिया ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
No comments:
Post a Comment