॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - तीसरा
अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्के
अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन
प्रियं
प्रभुर्ग्राम्य इव प्रियाया
विधित्सुरार्च्छद्द्युतरुं यदर्थे ।
वज्र्याद्रवत्तं
सगणो रुषान्धः
क्रीडामृगो नूनमयं वधूनाम् ॥ ५ ॥
सुतं
मृधे खं वपुषा ग्रसन्तं
दृष्ट्वा सुनाभोन्मथितं धरित्र्या ।
आमंत्रितस्तत्
तनयाय शेषं
दत्त्वा तदन्तःपुरमाविवेश ॥ ६ ॥
तत्राहृतास्ता
नरदेवकन्याः
कुजेन दृष्ट्वा हरिमार्तबन्धुम् ।
उत्थाय
सद्यो जगृहुः प्रहर्ष
व्रीडानुरागप्रहितावलोकैः ॥ ७ ॥
आसां
मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु योषिताम् ।
सविधं
जगृहे पाणीन् अनुरूपः स्वमायया ॥ ८ ॥
तास्वपत्यान्यजनयद्
आत्मतुल्यानि सर्वतः ।
एकैकस्यां
दश दश प्रकृतेर्विबुभूषया ॥ ९ ॥
भगवान्
विषयी पुरुषोंकी-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामा को प्रसन्न करने की
इच्छासे उनके लिये स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्र ने क्रोधसे अंधे
होकर अपने सैनिकोंसहित उनपर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय
ही अपनी स्त्रियों का क्रीडामृग बना हुआ है ॥ ५ ॥ अपने विशाल डीलडौल से आकाश को भी
ढक देनेवाले अपने पुत्र भौमासुर को भगवान्के हाथसे मरा हुआ देखकर पृथ्वीने जब
उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुर के पुत्र भगदत्त को
उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्त:पुरमें प्रवेश किया ॥ ६ ॥ वहाँ भौमासुर द्वारा
हरकर लायी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं। वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही
खड़ी हो गयीं और सबने महान् हर्ष, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण
चितवनसे तत्काल ही भगवान् को पतिरूप में वरण कर लिया ॥७॥ तब भगवान् ने अपनी
निजशक्ति योगमाया से उन ललनाओं के अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सबका अलग-अलग
महलों में एक ही मुहूर्त में विधिवत् पाणिग्रहण किया ॥ ८ ॥ अपनी लीलाका विस्तार
करने के लिये उन्होंने उनमें से प्रत्येक के गर्भसे सभी गुणों में अपने ही समान
दस-दस पुत्र उत्पन्न किये ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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