॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
भागवतके
दस लक्षण
अन्तः
शरीर आकाशात् पुरुषस्य विचेष्टतः ।
ओजः
सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महान् असुः ॥ १५ ॥
अनुप्राणन्ति
यं प्राणाः प्राणन्तं सर्वजन्तुषु ।
अपानंतं
अपानन्ति नरदेवं इवानुगाः ॥ १६ ॥
प्राणेन
आक्षिपता क्षुत् तृड् अन्तरा जायते विभोः ।
पिपासतो
जक्षतश्च प्राङ् मुखं निरभिद्यत ॥ १७ ॥
मुखतः
तालु निर्भिन्नं जिह्वा तत्र उपजायते ।
ततो
नानारसो जज्ञे जिह्वया योऽधिगम्यते ॥ १८ ॥
विवक्षोर्मुखतो
भूम्नो वह्निर्वाग् व्याहृतं तयोः ।
जले
वै तस्य सुचिरं निरोधः समजायत ॥ १९ ॥
नासिके
निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति ।
तत्र
वायुः गन्धवहो घ्राणो नसि जिघृक्षतः ॥ २० ॥
विराट्
पुरुष के हिलने-डोलनेपर उनके शरीरमें रहनेवाले आकाशसे इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबलकी उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ॥
१५ ॥ जैसे सेवक अपने स्वामी राजाके पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे
ही सबके शरीरोंमें प्राणके प्रबल रहनेपर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब
वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती
हैं ॥ १६ ॥ जब प्राण जोरसे आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुषको
भूख-प्यासका अनुभव हुआ। खाने-पीनेकी इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीरमें मुख
प्रकट हुआ ॥ १७ ॥ मुखसे तालु और तालुसे रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों
प्रकारके रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है ॥ १८ ॥
जब उनकी इच्छा बोलनेकी हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके
अधिष्ठातृ-देवता अग्रि और उनका विषय बोलना—ये तीनों प्रकट
हुए। इसके बाद बहुत दिनोंतक उस जलमें ही वे रुके रहे ॥ १९ ॥ श्वासके वेगसे
नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघनेकी इच्छा हुई, तब
उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्धको फैलानेवाले वायुदेव
प्रकट हुए ॥२०॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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