॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०४)
उद्धव
और विदुर की भेंट
इति
ऊचिवान् तत्र सुयोधनेन
प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण ।
असत्कृतः
सत्स्पृहणीयशीलः
क्षत्ता सकर्णानुजसौबलेन ॥ १४ ॥
क
एनमत्रोपजुहाव जिह्मं
दास्याः सुतं यद्बलिनैव पुष्टः ।
तस्मिन्
प्रतीपः परकृत्य आस्ते
निर्वास्यतामाशु पुराच्छ्वसानः ॥ १५ ॥
स
इत्थमत्युल्बणकर्णबाणैः
भ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोऽपि ।
स्वयं
धनुर्द्वारि निधाय मायां
गतव्यथोऽयादुरु मानयानः ॥ १६ ॥
विदुरजीका
ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करते थे। किन्तु उनकी
यह बात सुनते ही कर्ण,
दु:शासन और शकुनिके सहित दुर्योधनके होठ अत्यन्त क्रोधसे फडक़ने लगे
और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा—‘अरे ! इस कुटिल
दासीपुत्रको यहाँ किसने बुलाया है ? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर
जीता है, उन्हींके प्रतिकूल होकर शत्रुका काम बनाना चाहता
है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगरसे तुरन्त बाहर
निकाल दो’ ॥ १४-१५ ॥ भाईके सामने ही कानोंमें बाणके समान
लगनेवाले इन अत्यन्त कठोर वचनोंसे मर्माहत होकर भी विदुरजीने कुछ बुरा न माना और
भगवान्की मायाको प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वारपर रख वे हस्तिनापुरसे चल दिये ॥
१६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

No comments:
Post a Comment