Friday, May 4, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

यावत्सखा सख्युरिवेश ते कृतः
    प्रजाविसर्गे विभजामि भो जनम् ।
अविक्लबस्ते परिकर्मणि स्थितो
    मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः ॥ २९ ॥

श्रीभगवानुवाच ।

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ ३० ॥
यावानहं यथाभावो यद् रूपगुणकर्मकः ।
तथैव तत्त्वविज्ञानं अस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ३१ ॥
अहमेवासमेवाऽग्रे नान्यद् यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ३२ ॥

(ब्रह्माजी कह रहे हैं) प्रभो ! आपने एक मित्रके समान हाथ पकडक़र मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अत: जब मैं आपकी इस सेवासृष्टि-रचना में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ॥ २९ ॥
श्रीभगवान्‌ने कहाअनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनोंसे युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो ॥ ३० ॥ मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैंमेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो ॥ ३१ ॥ सृष्टिके पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ ३२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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