॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
ब्रह्माजी
का भगवद्धामदर्शन और भगवान्
के
द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश
यावत्सखा
सख्युरिवेश ते कृतः
प्रजाविसर्गे विभजामि भो जनम् ।
अविक्लबस्ते
परिकर्मणि स्थितो
मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः ॥ २९ ॥
श्रीभगवानुवाच
।
ज्ञानं
परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्यं
तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ ३० ॥
यावानहं
यथाभावो यद् रूपगुणकर्मकः ।
तथैव
तत्त्वविज्ञानं अस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ३१ ॥
अहमेवासमेवाऽग्रे
नान्यद् यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं
यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ३२ ॥
(ब्रह्माजी
कह रहे हैं) प्रभो ! आपने एक मित्रके समान हाथ पकडक़र मुझे अपना मित्र स्वीकार किया
है। अत: जब मैं आपकी इस सेवा—सृष्टि-रचना में लगूँ और सावधानी
से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ॥
२९ ॥
श्रीभगवान्ने
कहा—अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनोंसे युक्त अत्यन्त
गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे
ग्रहण करो ॥ ३० ॥ मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है,
मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैं—मेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो ॥ ३१ ॥ सृष्टिके
पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका
कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ
और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं
ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ ३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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