Friday, May 4, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

श्रीशुक उवाच ।
आत्ममायामृते राजन् पन्परस्यानुभवात्मनः ।
न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा ॥ १ ॥
बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया ।
रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते ॥ २ ॥
यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन् कालमाययोः ।
रमेत गतसम्मोहः त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम् ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! जैसे स्वप्नमें देखे जानेवाले पदार्थोंके साथ उसे देखनेवालेका कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही देहादिसे अतीत अनुभवस्वरूप आत्माका मायाके बिना दृश्य पदार्थोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ॥ १ ॥ विविध रूपवाली मायाके कारण वह विविध रूपवाला प्रतीत होता है, और जब उसके गुणोंमें रम जाता है तब यह मैं हूँ, यह मेरा हैइस प्रकार मानने लगता है ॥ २ ॥ किन्तु जब यह गुणोंको क्षुब्ध करनेवाले काल और मोह उत्पन्न करनेवाली मायाइन दोनोंसे परे अपने अनन्त स्वरूपमें मोहरहित होकर रमण करने लगता हैआत्माराम हो जाता है, तब यह मैं, मेराका भाव छोडक़र पूर्ण उदासीनगुणातीत हो जाता है ॥ ३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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