॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- सत्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०४)
महाराज
परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
तपः
शौचं दया सत्यमिति पादाःकृते कृताः ।
अधर्मांशैस्त्रयो
भग्नाः स्मयसंगमदैस्तव ॥२४॥
इदानीं
धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः ।
तं
जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनैधितः कलिः ॥२५॥
इयं
च भूर्भगवता न्यासितोरुभरा सती ।
श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः
सर्वतः कृतकौतुका ॥२६॥
शोचत्यश्रुकला
साध्वी दुर्भगेवोज्झिताधुना ।
अब्रह्यण्या
नृपव्याजाः शूद्राः भोक्ष्यन्ति मामिति ॥२७॥
इति
धर्म महीं चैव सान्त्वयित्वा महारथः ।
निशातमाददे
खड्गं कलयेऽधर्महेतवे ॥२८॥
तं
जिघांसुमभिप्रेत्य विहाय नृपलाञ्छनम् ।
तत्पादमूलं
शिरसा समगाद् भयविह्वलः ॥२९॥
(राजा परीक्षित्
कहते हैं) धर्मदेव ! सत्ययुग में आपके चार-चरण थे—तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस
समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके
हैं ॥ २४ ॥ अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बलपर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप
कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ॥ २५ ॥ ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं।
भगवान् ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले
चरणचिह्नों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं ॥ २६ ॥ अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे
साध्वी अभागिनीके समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका
स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ॥ २७ ॥ महारथी परीक्षित् ने इस
प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को
मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ॥ २८ ॥ कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार
ही डालना चाहते हैं; अत: झटपट उसने अपने राजचिह्न उतार डाले
और भयविह्वल होकर उनके चरणोंमें अपना सिर रख दिया ॥ २९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

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