Monday, February 26, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

निशम्य भगवन्मार्गं संस्थां यदुकुलस्य च ।
स्वःपथाय मतिं चक्रे निभृतात्मा युधिष्ठिरः ॥३२॥
पृथाप्यनुश्रुत्य धनंजयोदितं
नाश यदूनां भगवद्गतिं च ताम् ।
एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे
निवेशितात्मोपरराम संसृतेः ॥३३॥
ययाहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावजः ।
कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितु: समम् ॥३४॥
यथा मत्स्यादिरूपाणि धत्ते जह्याद् यथा नटः ।
भूभरः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम् ॥३५॥

भगवान्‌ के स्वधाम-गमन और यदुवंशके संहार का वृत्तान्त सुनकर निश्चलमति युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया ॥ ३२ ॥ कुन्ती ने भी अर्जुन के मुखसे यदुवंशियों के नाश और भगवान्‌के स्वधाम-गमनकी बात सुनकर अनन्य भक्तिसे अपने हृदयको भगवान्‌ श्रीकृष्णमें लगा दिया और सदाके लिये इस जन्म-मृत्युरूप संसारसे अपना मुँह मोड़ लिया ॥ ३३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने लोक-दृष्टिमें जिस यादवशरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटे से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान्‌ की दृष्टि में दोनों ही समान थे ॥ ३४ ॥ जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं वैसे ही उन्होंने जिस यादवशरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया ॥ ३५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



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