॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
कृष्णविरहव्यथित
पाण्डवों का
परीक्षित्
को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना
राजंस्त्वयाभिपृष्टानां
सुहृदां न सुहृत्पुरेः ।
विप्रशापविमूढानां
निघ्नतां मुष्टिभिर्मिथः ॥२२॥
वारुणीं
मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम् ।
अजानतामिव्यान्योन्य
चतुः पंचावशेषिताः ॥२३॥
प्रायेणैतद्
भगवत ईश्वरस्य विचेष्टितम् ।
मिथो
निघ्नन्ति भूतानि भावयन्ति च यन्मिथः ॥२४॥
जलौकसां
जले यद्वन्महान्तोऽदन्त्यणीयसः ।
दुर्बलान्बलिनो
राजन्महान्तो बलिनो मिथः ॥२५॥
एवं
बलिष्ठैर्यदुभिर्महद्भिरितरान् विभुः ।
यदून्
यदुभिरन्योन्यं भूभारान् संजहार ह ॥२६॥
देशकालार्थयुक्तानि
हृत्तापोपशमानि च ।
हरन्ति
स्मरताश्चित्तं गोविन्दाभिहितानि मे ॥२७॥
(अर्जुन
युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) राजन् ! आपने द्वारकावासी अपने जिन सुहृद् सम्बन्धियों की
बात पूछी है,
वे ब्राह्मणोंके शापवश मोहग्रस्त हो गये और वारुणी मदिराके पानसे
मदोन्मत्त होकर अपरिचितोंकी भाँति आपसमें ही एक-दूसरेसे भिड़ गये और घूँसों से
मार-पीट करके सबके-सब नष्ट हो गये। उनमें से केवल चार-पाँच ही बचे हैं ॥ २२-२३ ॥
वास्तवमें यह सर्वशक्तिमान् भगवान्की ही लीला है कि संसारके प्राणी परस्पर
एक-दूसरेका पालन पोषण भी करते हैं और एक-दूसरेको मार भी डालते हैं ॥ २४ ॥ राजन् !
जिस प्रकार जलचरोंमें बड़े जन्तु छोटोंको, बलवान् दुर्बलों को
एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरेको खा जाते हैं, उसी
प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियोंके द्वारा भगवान्ने दूसरे राजाओंका संहार
कराया। तत्पश्चात् यदुवंशियों के द्वारा ही एक से दूसरे यदुवंशी का नाश कराके
पूर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ २५-२६ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे जो
शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और
प्रयोजन के अनुरूप तथा हृदय के ताप को शान्त करनेवाली थीं; स्मरण
आते ही वे हमारे चित्तका हरण कर लेती हैं ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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