॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)
कृष्णविरहव्यथित
पाण्डवों का
परीक्षित्
को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना
विसृज्य
तत्र तत् सर्वं दुकूलवलयादिकम् ।
निर्ममो
निरहंकारः संछिन्नाशेषबन्धनः ॥४०॥
वाचं
जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम् ।
मृत्यावपानं
सोत्सर्गं तं पंचत्वे ह्यजोहवीत् ॥४१॥
त्रित्वे
हुत्वाथ पंचत्वं तच्चेकत्वेऽजुहोन्मुनिः ।
सर्वमात्मन्यजुहवीद्
ब्रह्मण्यात्मानमव्यये ॥४२॥
चीरवासा
निराहारो बद्धवाङ् मुक्तमूर्धजः ।
दर्शयन्नात्मनो
रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥४३॥
अनपेक्षमाणो
निरगादश्रृण्वन्बधिरो यथा ।
उदीचीं
प्रविवेशाशां गतपूर्वा महात्मभिः ।
हृदि
ब्रह्मा परं ध्यायान्नवर्तेत यतो गतः ॥४४॥
युधिष्ठिरने
अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकारसे रहित होकर समस्त
बन्धन काट डाले ॥ ४० ॥ उन्होंने दृढ़ भावनासे वाणीको मनमें, मनको प्राणमें, प्राणको अपानमें और अपानको उसकी
क्रियाके साथ मृत्युमें, तथा मृत्युको पञ्चभूतमय शरीरमें लीन
कर लिया ॥ ४१ ॥ इस प्रकार शरीरको मृत्युरूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुणमें
मिला दिया, त्रिगुणको मूल प्रकृतिमें, सर्वकारणरूपा
प्रकृतिको आत्मामें, और आत्माको अविनाशी ब्रह्ममें विलीन कर
दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपञ्च ब्रह्मस्वरूप है ॥ ४२
॥ इसके पश्चात् उन्होंने शरीरपर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जलका
त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे
अपने रूपको ऐसा दिखाने लगे जैसे कोई जड, उन्मत्त या पिशाच हो
॥ ४३ ॥ फिर वे बिना किसीकी बाट देखे तथा बहरेकी तरह बिना किसीकी बात सुने, घरसे निकल पड़े। हृदयमें उस परब्रह्मका ध्यान करते हुए, जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने
उत्तर दिशाकी यात्रा की, जिस ओर पहले बड़े-बड़े महात्मा जन
जा चुके हैं ॥ ४४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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