॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
परीक्षित्
की दिग्विजय
तथा
धर्म और पृथ्वी का संवाद
क्षुद्रायुषां
नृणामंग मर्त्यानामृतमिच्छताम् ।
इहोपहूतो
भगवान् मृत्युः शामित्रकर्मणि ॥७॥
न
कश्चिन्म्रियते तावद् यावदास्त इहान्तकः ।
एतदर्भ
हि भगवानाहूतः परमर्षिभिः ।
अहो
नृलोके पीयेत हरिलीलामृतं वचः ॥८॥
मन्दस्य
मन्दप्रज्ञस्य वयो मन्दायुषश्च वै ।
निद्रया
ह्रियते नक्तं दिवा च व्यर्थकर्मभिः ॥९॥
सूत
उवाच ।
यदा
परीक्षि्त कुरुजांगलेऽवसत्
कलिं
प्रविष्टं निजचक्रवर्तिते ।
निशम्य
वार्तामनतिप्रियां ततः
शरासनं
संयुगशौण्डिराददे ॥१०॥
स्वलंकृतं
श्यामतुरंगयोजितं
रथं
मृगेन्द्रध्वजमाश्रितः पुरात् ।
वृतो
रथाश्वद्विपपत्त्तियुक्तया
स्वसेनया
दिग्विजयाय निर्गतः ॥११॥
भद्राश्चं
केतुमालं च भारतं चोत्तरान् कुरुन् ।
किम्पुरुषादीनि
वर्षाणि विजित्य जगृहे बलिम् ॥१२॥
तत्र
तत्रोपशृण्वानः स्वपूर्वेषां महात्मनाम् ।
प्रगीयमाणं
च यशः कृष्णमाहात्म्यसूचकम् ॥१३॥
आत्मानं
च परित्रातमश्वत्थाम्रोऽस्त्रतेजसः ।
स्नेहं
च वृष्णिपार्थांना तेषां भक्तिं च केशवे ॥१४॥
तेभ्यः
परमसंतुष्टः प्रीत्युज्जृम्भितलोचनः ।
महाधनानि
वासांसि ददौ हारान् महामनाः ॥१५॥
(शौनकजी
पूछ रहे हैं) प्यारे सूत जी ! जो लोग चाहते तो हैं मोक्ष परन्तु अल्पायु होने के
कारण मृत्यु से ग्रस्त हो रहे हैं, उनके कल्याण के
लिये भगवान् यम का आवाहन करके उन्हें यहाँ शान्तिकर्म में नियुक्त कर दिया गया है
॥ ७ ॥ जब तक यमराज यहाँ इस कर्म में नियुक्त हैं, तब तक किसी
की मृत्यु नहीं होगी। मृत्युसे ग्रस्त मनुष्यलोक के जीव भी भगवान् की सुधातुल्य
लीला-कथा का पान कर सकें, इसीलिये महर्षियों ने भगवान् यम को
यहाँ बुलाया है ॥ ८ ॥ एक तो थोड़ी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्था में संसार के
मन्दभाग्य विषयी पुरुषोंकी आयु व्यर्थ ही बीती जा रही है—नींदमें
रात और व्यर्थके कामों में दिन ॥ ९ ॥
सूतजीने
कहा—जिस समय राजा परीक्षित् कुरुजाङ्गल देशमें सम्राट् के रूपमें निवास कर
रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि मेरी सेना द्वारा सुरक्षित
साम्राज्य में कलियुगका प्रवेश हो गया है। इस समाचारसे उन्हें दु:ख तो अवश्य हुआ;
परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करनेका अवसर हाथ लगा, वे उतने दुखी नहीं हुए। इसके बाद युद्धवीर परीक्षित्ने धनुष हाथमें ले
लिया ॥ १० ॥ वे श्यामवर्णके घोड़ोंसे जुते हुए, सिंहकी
ध्वजावाले, सुसज्जित रथपर सवार होकर दिग्विजय करनेके लिये
नगरसे बाहर निकल पड़े। उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी ॥ ११ ॥ उन्होंने भद्राश्व,
केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु
और किम्पुरुष आदि सभी वर्षों को जीतकर वहाँ के राजाओंसे भेंट ली ॥ १२ ॥ उन्हें उन
देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओंका सुयश सुननेको मिला। उस यशोगानसे पद-पदपर
भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा प्रकट होती थी ॥ १३ ॥ इसके साथ ही उन्हें यह भी सुननेको
मिलता था कि भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र की ज्वाला से किस
प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवोंमें परस्पर
कितना प्रेम था तथा पाण्डवोंकी भगवान् श्रीकृष्णमें कितनी भक्ति थी ॥ १४ ॥ जो लोग
उन्हें ये चरित्र सुनाते, उनपर महामना राजा परीक्षित् बहुत
प्रसन्न होते; उनके नेत्र प्रेमसे खिल उठते। वे बड़ी
उदारतासे उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियोंके हार उपहाररूपमें देते ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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