Monday, January 29, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

अजातशत्रुः पृतनां गोपीथाय मधुद्विषः ।
परेभ्यः शङ्कितः स्नेहात् प्रायुङ्क्त चतुरङ्‌गिणीम् ॥ ३२ ॥
अथ दूरागतान् शौरिः कौरवान् विरहातुरान् ।
सन्निवर्त्य दृढं स्निग्धान् प्रायात्स्वनगरीं प्रियैः ॥ ३३ ॥
कुरुजाङ्गलपाञ्चालान् शूरसेनान् सयामुनान् ।
ब्रह्मावर्तं कुरुक्षेत्रं मत्स्यान् सारस्वतानथ ॥ ३४ ॥
मरुधन्वमतिक्रम्य सौवीराभीरयोः परान् ।
आनर्तान् भार्गवोपागात् श्रान्तवाहो मनाग्विभुः ॥ ३५ ॥
तत्र तत्र ह तत्रत्यैः हरिः प्रत्युद्यतार्हणः ।
सायं भेजे दिशं पश्चात् गविष्ठो गां गतस्तदा ॥ ३६ ॥

अजातशत्रु युधिष्ठिरने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शङ्का हो आयी थी कि कहीं रास्तेमें शत्रु इनपर आक्रमण न कर दें ॥ ३२ ॥ सुदृढ़ प्रेमके कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान्‌ के साथ बहुत दूरतक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरहसे व्याकुल हो रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रोंके साथ द्वारकाकी यात्रा की ॥ ३३ ॥ शौनकजी! वे कुरुजाङ्गल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुनाके तटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देशको पार करके सौवीर और आभीर देशके पश्चिम आनर्त्त देशमें आये। उस समय अधिक चलनेके कारण भगवान्‌के रथके घोड़े कुछ थक-से गये थे ॥ ३४-३५ ॥ मार्ग में स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान्‌ का सम्मान करते, सायंकाल होनेपर वे रथपर से भूमिपर उतर आते और जलाशयपर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्या थी ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे श्रीकृष्णद्वारकागमनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
                                  
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



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