॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--चौथा अध्याय..(पोस्ट ०१)
महर्षि
व्यासका असन्तोष
व्यास
उवाच ।
इति
ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम् ।
वृद्धः
कुलपतिः सूतं बह्वृचः शौनकोऽब्रवीत् ॥ १ ॥
शौनक
उवाच ।
सूत
सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कथां
भागवतीं पुण्यां यदाह भगवान् शुकः ॥ २ ॥
कस्मिन्
युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना ।
कुतः
सञ्चोदितः कृष्णः कृतवान् संहितां मुनिः ॥ ३ ॥
तस्य
पुत्रो महायोगी समदृङ् निर्विकल्पकः ।
एकान्तमतिः
उन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते ॥ ४ ॥
व्यासजी
कहते हैं—उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्या-वयोवृद्ध कुलपति
ऋग्वेदी शौनकजी ने सूतजीकी पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा ॥ १ ॥
शौनकजी
बोले—सूतजी ! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं। जो कथा
भगवान् श्रीशुकदेवजी ने कही थी, वही भगवान् की पुण्यमयी कथा
कृपा करके आप हमें सुनाइये ॥ २ ॥ वह कथा किस युगमें, किस
स्थानपर और किस कारणसे हुई थी ? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायनने
किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिताका निर्माण किया था ? ॥ ३ ॥ उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी,
भेदभाव-रहित, संसार-निद्रा से जगे एवं निरन्तर
एकमात्र परमात्मामें ही स्थित रहते हैं। वे छिपे रहनेके कारण मूढ़-से प्रतीत होते
हैं ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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