॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
गर्भमें
परीक्षित्की रक्षा,
कुन्तीके द्वारा भगवान्की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक
अन्तःस्थः
सर्वभूतानां आत्मा योगेश्वरो हरिः ।
स्वमाययाऽऽवृणोद्गर्भं
वैराट्याः कुरुतन्तवे ॥ १४ ॥
यद्यप्यस्त्रं
ब्रह्मशिरः त्वमोघं चाप्रतिक्रियम् ।
वैष्णवं
तेज आसाद्य समशाम्यद् भृगूद्वह ॥ १५ ॥
मा
मंस्था ह्येतदाश्चर्यं सर्वाश्चर्यमयेऽच्युते ।
य
इदं मायया देव्या सृजत्यवति हन्त्यजः ॥ १६ ॥
ब्रह्मतेजोविनिर्मुक्तैः
आत्मजैः सह कृष्णया ।
प्रयाणाभिमुखं
कृष्णं इदमाह पृथा सती ॥ १७ ॥
योगेश्वर
श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान आत्मा हैं। उन्होंने उत्तराके गर्भको
पाण्डवोंकी वंश-परम्परा चलानेके लिये अपनी मायाके कवचसे ढक दिया ॥ १४ ॥ शौनकजी !
यद्यपि ब्रह्मास्त्र अमोघ है और उसके निवारणका कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान् श्रीकृष्णके तेजके सामने आकर वह शान्त हो गया ॥ १५ ॥ यह
कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि भगवान् तो
सर्वाश्चर्यमय हैं, वे ही अपनी निज शक्ति मायासे स्वयं
अजन्मा होकर भी इस संसारकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं
॥ १६ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्ण जाने लगे, तब ब्रह्मास्त्रकी
ज्वालासे मुक्त अपने पुत्रोंके और द्रौपदीके साथ सती कुन्तीने भगवान् श्रीकृष्णकी
इस प्रकार स्तुति की ॥ १७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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