॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
विदुरजी
के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका
वनमें जाना
एवं
राजा विदुरेणानुजेन
प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः ।
छित्त्वा
स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो
निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥ २८ ॥
पतिं
प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री
पतिव्रता चानुजगाम साध्वी ।
हिमालयं
न्यस्तदण्डप्रहर्षं
मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः ॥ २९ ॥
अजातशत्रुः
कृतमैत्रो हुताग्निः
विप्रान् नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः ।
गृहं
प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
न चापश्यत् पितरौ सौबलीं च ॥ ३० ॥
तत्र
सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः ।
गावल्गणे
क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः ॥ ३१ ॥
अम्बा
च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत् ।
अपि
मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया ।
आशंसमानः
शमलं गङ्गायां दुःखितोऽपतत् ॥ ३२ ॥
पितर्युपरते
पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून् ।
अरक्षतां
व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः ॥ ३३ ॥
जब
छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्रको इस प्रकार समझाया, तब उनकी
प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओंके सुदृढ़
स्नेह-पाशोंको काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्गसे निकल पड़े ॥ २८ ॥
जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालयकी
यात्रा कर रहे हैं, जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है,
जैसा वीर पुरुषोंको लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके द्वारा किये हुए
न्यायोचित प्रहारसे होता है, तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल
पड़ीं ॥ २९ ॥ अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रात:काल सन्ध्यावन्दन तथा अग्रिहोत्र करके
ब्राह्मणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्णका दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरणवन्दना के लिये
राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारीके दर्शन नहीं हुए ॥ ३० ॥ युधिष्ठिरने उद्विग्रचित्त
होकर वहीं बैठे हुए सञ्जयसे पूछा—‘सञ्जय ! मेरे वे वृद्ध और
नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं ? ॥ ३१ ॥ पुत्रशोकसे
पीडि़त दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ?
ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके मारे जानेसे दुखी थे। मैं
बड़ा मन्दबुद्धि हूँ— कहीं मुझसे किसी अपराधकी आशङ्का करके
वे माता गान्धारीसहित गङ्गाजीमें तो नहीं कूद पड़े ॥ ३२ ॥ जब हमारे पिता पाण्डुकी
मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे- नन्हे बच्चे थे, तब इन्हीं
दोनों चाचाओंने बड़े-बड़े दु:खोंसे हमें बचाया था। वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे।
हाय ! वे यहाँसे कहाँ चले गये ?’ ॥ ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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