॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
नताः
स्म ते नाथ सदाङ्घ्रिपङ्कजं
विरिञ्चवैरिञ्च्य सुरेन्द्र वन्दितम् ।
परायणं
क्षेममिहेच्छतां परं
न यत्र कालः प्रभवेत्परः प्रभुः ॥ ६ ॥
भवाय
नस्त्वं भव विश्वभावन
त्वमेव माताथ सुहृत्पतिः पिता ।
त्वं
सद्गुरुर्नः परमं च दैवतं
यस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम ॥ ७ ॥
अहो
सनाथा भवता स्म यद्वयं
त्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम् ।
प्रेमस्मित
स्निग्ध निरीक्षणाननं
पश्येम रूपं तव सर्वसौभगम् ॥ ८ ॥
यर्ह्यम्बुजाक्षापससार
भो भवान्
कुरून् मधून् वाथ सुहृद् दिदृक्षया ।
तत्राब्दकोटिप्रतिमः
क्षणो भवेद्
रविं विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥ ९ ॥
इति
चोदीरिता वाचः प्रजानां भक्तवत्सलः ।
शृण्वानोऽनुग्रहं
दृष्ट्या वितन्वन् प्राविशत्पुरम् ॥ १० ॥
‘स्वामिन् ! हम आपके उन चरण-कमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र तक करते हैं,
जो इस संसार में परम कल्याण चाहनेवालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं,
जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता
॥ ६ ॥ विश्वभावन ! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम
आराध्यदेव हैं। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण
करें ॥ ७ ॥ अहा ! हम आपको पाकर सनाथ हो गये। क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम
रूपका हम दर्शन करते रहते हैं। कितना सुन्दर मुख है ! प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्निग्ध
चितवन ! यह दर्शन तो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ॥ ८ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! जब आप
अपने बन्धु-बान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रज-मण्डल) चले जाते
हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षोंके समान
लंबा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसी
सूर्यके बिना आँखोंकी ॥ ९ ॥ भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन
सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारकामें
प्रविष्ट हुए ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
No comments:
Post a Comment