॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
भगवान्के
यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का पूर्वचरित्र
एतत्
संसूचितं ब्रह्मन् तापत्रयचिकित्सितम् ।
यदीश्वरे
भगवति कर्म ब्रह्मणि भावितम् ॥ ३२ ॥
आमयो
यश्च भूतानां जायते येन सुव्रत ।
तदेव
ह्यामयं द्रव्यं न पुनाति चिकित्सितम् ॥ ३३ ॥
एवं
नृणां क्रियायोगाः सर्वे संसृतिहेतवः ।
त
एवात्मविनाशाय कल्पन्ते कल्पिताः परे ॥ ३४ ॥
यदत्र
क्रियते कर्म भगवत् परितोषणम् ।
ज्ञानं
यत् तद् अधीनं हि भक्तियोगसमन्वितम् ॥ ३५ ॥
कुर्वाणा
यत्र कर्माणि भगवच्छिक्षयासकृत् ।
गृणन्ति
गुणनामानि कृष्णस्यानुस्मरन्ति च ॥ ३६ ॥
सत्यसंकल्प
व्यासजी ! पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके प्रति समस्त कर्मोंको समर्पित कर देना
ही संसारके तीनों तापोंकी एकमात्र ओषधि है, यह बात मैंने आपको
बतला दी ॥ ३२ ॥ प्राणियोंको जिस पदार्थके सेवनसे जो रोग हो जाता है, वही पदार्थ चिकित्साविधिके अनुसार प्रयोग करनेपर क्या उस रोगको दूर नहीं
करता ? ॥ ३३ ॥ इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्योंको
जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में डालने वाले हैं, तथापि जब
वे भगवान् को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब उनका कर्मपना ही
नष्ट हो जाता है ॥ ३४ ॥ इस लोक में जो शास्त्रविहित कर्म भगवान् की प्रसन्नता के
लिये किये जाते हैं, उन्हींसे पराभक्तियुक्त ज्ञान की
प्राप्ति होती है ॥ ३५ ॥ उस भगवदर्थ कर्म के मार्गमें भगवान्के आज्ञानुसार आचरण
करते हुए लोग बार-बार भगवान् श्रीकृष्णके गुण और नामोंका कीर्तन तथा स्मरण करते
हैं ॥ ३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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