॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--छठा अध्याय..(पोस्ट ०६)
नारदजीके
पूर्वचरित्रका शेष भाग
एतद्ध्यातुरचित्तानां
मात्रास्पर्शेच्छया मुहुः ।
भवसिन्धुप्लवो
दृष्टो हरिचर्यानुवर्णनम् ॥ ३५ ॥
यमादिभिर्योगपथैः
कामलोभहतो मुहुः ।
मुकुंदसेवया
यद्वत् तथात्माद्धा न शाम्यति ॥ ३६ ॥
सर्वं
तदिदमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।
जन्मकर्मरहस्यं
मे भवतश्चात्मतोषणम् ॥ ३७ ॥
सूत
उवाच ।
एवं
संभाष्य भगवान् नारदो वासवीसुतम् ।
आमंत्र्य
वीणां रणयन् ययौ यादृच्छिको मुनिः ॥ ३८ ॥
अहो
देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वनः ।
गायन्माद्यन्निदं
तंत्र्या रमयत्यातुरं जगत् ॥ ३९ ॥
(नारद
जी कह रहे हैं) जिन लोगोंका चित्त निरन्तर विषय-भोगोंकी कामनासे आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान्की लीलाओंका कीर्तन संसार-सागरसे पार जानेका जहाज है,
यह मेरा अपना अनुभव है ॥ ३५ ॥ काम और, लोभकी
चोटसे बार-बार घायल हुआ हृदय श्रीकृष्ण-सेवासे जैसी प्रत्यक्ष शान्तिका अनुभव करता
है, यम-नियम आदि योग-मार्गोंसे वैसी शान्ति नहीं मिल सकती ॥
३६ ॥ व्यासजी ! आप निष्पाप हैं। आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह
सब अपने जन्म और साधनाका रहस्य तथा आपकी आत्मतुष्टिका उपाय मैंने बतला दिया ॥ ३७ ॥
श्रीसूतजी
कहते हैं—शौनकादि ऋषियो ! देवर्षि नारदने व्यासजीसे इस प्रकार कहकर जानेकी अनुमति
ली और वीणा बजाते हुए स्वच्छन्द विचरण करनेके लिये वे चल पड़े ॥ ३८ ॥ अहा ! ये
देवर्षि नारद धन्य हैं; क्योंकि ये शार्ङ्गपाणि भगवान्की
कीर्तिको अपनी वीणापर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्न होते ही हैं, साथ-साथ इस त्रितापतप्त जगत् को भी आनन्दित करते रहते हैं ॥ ३९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे
व्यासनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः ॥। ६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

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