Friday, January 5, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

भगवान्‌के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का पूर्वचरित्र

श्रीनारद उवाच ।

भवतानुदितप्रायं यशो भगवतोऽमलम् ।
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनं खिलम् ॥ ८ ॥
यथा धर्मादयश्चार्था मुनिवर्यानुकीर्तिताः ।
न तथा वासुदेवस्य महिमा ह्यनुवर्णितः ॥ ९ ॥
न यद् वचश्चित्रपदं हरेर्यशो
     जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् ।
तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा
     न यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्क्षयाः ॥ १० ॥
तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो
     यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि ।
नामान्यनन्तस्य यशोऽङ्‌कितानि यत्
     श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः ॥ ११ ॥
नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं
     न शोभते ज्ञानमलं निरञ्जनम् ।
कुतः पुनः शश्वदभद्रमीश्वरे
     न चार्पितं कर्म यदप्यकारणम् ॥ १२ ॥
अथो महाभाग भवानमोघदृक्
     शुचिश्रवाः सत्यरतो धृतव्रतः ।
उरुक्रमस्याखिलबंधमुक्तये
     समाधिनानुस्मर तद्‌विचेष्टितम् ॥ १३ ॥
ततोऽन्यथा किञ्चन यद्‌विवक्षतः
     पृथग् दृशस्तत् कृतरूपनामभिः ।
न कर्हिचित् क्वापि च दुःस्थिता मतिः
     लभेत वाताहतनौरिवास्पदम् ॥ १४ ॥
जुगुप्सितं धर्मकृतेऽनुशासतः
     स्वभावरक्तस्य महान् व्यतिक्रमः ।
यद्‌वाक्यतो धर्म इतीतरः स्थितो
     न मन्यते तस्य निवारणं जनः ॥ १५ ॥

नारदजीने कहाव्यासजी ! आपने भगवान्‌ के निर्मल यशका गान प्राय: नहीं किया। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान्‌ संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है ॥ ८ ॥ आपने धर्म आदि पुरुषार्थोंका जैसा निरूपण किया है, भगवान्‌ श्रीकृष्णकी महिमाका वैसा निरूपण नहीं किया ॥ ९ ॥ जिस वाणीसेचाहे वह रस-भाव-अलङ्कारादिसे युक्त ही क्यों न होजगत् को  पवित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अपवित्र मानी जाती है। मानसरोवरके कमनीय कमलवनमें विहरनेवाले हंसोंकी भाँति ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते ॥ १० ॥ इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान्‌के सुयशसूचक नामोंसे युक्त है, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ॥ ११ ॥ वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान्‌की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओंमें सदा ही अमङ्गलरूप है, वह काम्य कर्म, और जो भगवान्‌को अर्पण नहीं किया गया है, ऐसा अहैतुक (निष्काम) कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है ॥ १२ ॥ महाभाग व्यासजी ! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यपरायण एवं दृढ़व्रत हैं। इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवोंको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये समाधिके द्वारा अचिन्त्यशक्ति भगवान्‌की लीलाओंका स्मरण कीजिये ॥ १३ ॥ जो मनुष्य भगवान्‌की लीलाके अतिरिक्त और कुछ कहनेकी इच्छा करता है, वह उस इच्छासे ही निर्मित अनेक नाम और रूपोंके चक्करमें पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभावसे भर जाती है। जैसे हवाके झकोरोंसे डगमगाती हुई डोंगीको कहीं भी ठहरनेका ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चञ्चल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती ॥ १४ ॥ संसारी लोग स्वभावसे ही विषयोंमें फँसे हुए हैं। धर्मके नामपर आपने उन्हें निन्दित (पशुहिंसायुक्त) सकाम कर्म करनेकी भी आज्ञा दे दी है। यह बहुत ही उलटी बात हुई; क्योंकि मूर्खलोग आपके वचनोंसे पूर्वोक्त निन्दित कर्मको ही धर्म मानकर—‘यही मुख्य धर्म हैऐसा निश्चय करके उसका निषेध करनेवाले वचनोंको ठीक नहीं मानते ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से 


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