॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
गर्भमें
परीक्षित्की रक्षा,
कुन्तीके द्वारा भगवान्की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक
यथा
हृषीकेश खलेन देवकी
कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता ।
विमोचिताहं
च सहात्मजा विभो
त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात् ॥ २३ ॥
विषान्महाग्नेः
पुरुषाददर्शनाद्
असत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः ।
मृधे
मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो
द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः ॥ २४ ॥
विपदः
सन्तु ताः शश्वत् तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो
दर्शनं यत्स्याद् अपुनर्भवदर्शनम् ॥ २५ ॥
(कुन्ती
श्रीकृष्ण से कह रही हैं) हृषीकेश ! जैसे आपने दुष्ट कंसके द्वारा कैद की हुई और
चिरकालसे शोकग्रस्त देवकीकी रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रोंके
साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियोंसे रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हैं। आप
सर्वशक्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण ! कहाँतक गिनाऊँ—विषसे,
लाक्षागृहकी भयानक आगसे, हिडिम्ब आदि
राक्षसोंकी दृष्टिसे, दुष्टोंकी द्यूत-सभासे, वनवासकी विपत्तियोंसे और अनेक बारके युद्धोंमें अनेक महारथियोंके
शस्त्रास्त्रोंसे और अभी-अभी इस अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे भी आपने ही हमारी
रक्षा की है ॥ २३-२४ ॥ जगद्गुरो ! हमारे जीवनमें सर्वदा पद-पदपर विपत्तियाँ आती
रहें; क्योंकि विपत्तियोंमें ही निश्चितरूपसे आपके दर्शन हुआ
करते हैं और आपके दर्शन हो जानेपर फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं आना पड़ता ॥ २५
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

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