॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--छठा अध्याय..(पोस्ट ०३)
नारदजीके
पूर्वचरित्रका शेष भाग
तस्मिन्निर्मनुजेऽरण्ये
पिप्पलोपस्थ आश्रितः ।
आत्मनात्मानमात्मस्थं
यथाश्रुतमचिन्तयम् ॥ १६ ॥
ध्यायतश्चरणांभोजं
भावनिर्जितचेतसा ।
औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य
हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः ॥ १७ ॥
प्रेमातिभरनिर्भिन्न
पुलकाङ्गोऽतिनिर्वृतः ।
आनंदसंप्लवे
लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥ १८ ॥
रूपं
भगवतो यत्तन् मनःकान्तं शुचापहम् ।
अपश्यन्
सहसोत्तस्थे वैक्लव्याद् दुर्मना इव ॥ १९ ॥
दिदृक्षुस्तदहं
भूयः प्रणिधाय मनो हृदि ।
वीक्षमाणोऽपि
नापश्यं अवितृप्त इवातुरः ॥ २० ॥
(श्रीनारदजी
कहते हैं-) उस विजन वनमें एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से
जैसा मैंने सुना था,
हृदयमें रहनेवाले परमात्मा के उसी स्वरूप का मैं मन-ही-मन ध्यान
करने लगा ॥ १६ ॥ भक्तिभावसे वशीकृत चित्तद्वारा भगवान्के चरणकमलोंका ध्यान करते
ही भगवत्-प्राप्तिकी उत्कट लालसासे मेरे नेत्रोंमें आँसू छलछला आये और हृदयमें
धीरे-धीरे भगवान् प्रकट हो गये ॥ १७ ॥ व्यासजी ! उस समय प्रेमभावके अत्यन्त
उद्रेकसे मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। हृदय अत्यन्त शान्त और शीतल हो गया। उस
आनन्दकी बाढ़में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तुका तनिक भी भान रहा ॥
१८ ॥ भगवान्का वह अनिर्वचनीय रूप समस्त शोकोंका नाश करनेवाला और मनके लिये
अत्यन्त लुभावना था। सहसा उसे न देख मैं बहुत ही विकल हो गया और अनमना-सा होकर
आसनसे उठ खड़ा हुआ ॥ १९ ॥ मैंने उस स्वरूपका दर्शन फिर करना चाहा; किन्तु मनको हृदयमें समाहित करके बार-बार दर्शनकी चेष्टा करनेपर भी मैं
उसे नहीं देख सका। मैं अतृप्त के समान आतुर हो उठा ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

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