॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--तीसरा अध्याय..(पोस्ट ११)
भगवान्के
अवतारोंका वर्णन
स
वेद धातुः पदवीं परस्य
दुरन्तवीर्यस्य रथाङ्गपाणेः ।
योऽमायया
सन्ततयानुवृत्त्या
भजेत तत्पादसरोजगन्धम् ॥ ३८ ॥
अथेह
धन्या भगवन्त इत्थं
यद्वासुदेवेऽखिललोकनाथे ।
कुर्वन्ति
सर्वात्मकमात्मभावं
न यत्र भूयः परिवर्त उग्रः ॥ ३९ ॥
चक्रपाणि
भगवान्की शक्ति और पराक्रम अनन्त हैं—उनकी कोई थाह नहीं
पा सकता। वे सारे जगत् के निर्माता होनेपर
भी उससे सर्वथा परे हैं। उनके स्वरूपको अथवा उनकी लीलाके रहस्यको वही जान सकता है,
जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भावसे उनके चरणकमलोंकी दिव्य गन्धका सेवन
करता है—सेवा-भावसे उनके चरणोंका चिन्तन करता रहता है ॥ ३८ ॥
शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवनमें और
विघ्र-बाधाओंसे भरे इस संसारमें समस्त लोकोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे वह
सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं,
जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसारके भयंकर चक्रमें नहीं पडऩा होता ॥
३९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से

No comments:
Post a Comment