॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
अहो
अलं श्लाघ्यतमं यदोः कुलं
अहो अलं पुण्यतमं मधोर्वनम् ।
यदेष
पुंसां ऋषभः श्रियः पतिः
स्वजन्मना चङ्क्रमणेन चाञ्चति ॥ २६ ॥
अहो
बत स्वर्यशसः तिरस्करी
कुशस्थली पुण्ययशस्करी भुवः ।
पश्यन्ति
नित्यं यदनुग्रहेषितं
स्मितावलोकं स्वपतिं स्म यत्प्रजाः ॥ २७ ॥
अहो
! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम
श्रीकृष्णने जन्म ग्रहण करके इस वंशको सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन
(व्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है, जिसे इन्होंने अपने शैशव
एवं किशोरावस्थामें घूम-फिरकर सुशोभित किया है ॥ २६ ॥ बड़े हर्षकी बात है कि
द्वारकाने स्वर्गके यशका तिरस्कार करके पृथ्वीके पवित्र यशको बढ़ाया है। क्यों न
हो, वहाँकी प्रजा अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णको, जो बड़े प्रेमसे मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें कृपादृष्टिसे देखते हैं,
निरन्तर निहारती रहती हैं ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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