॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)
युधिष्ठिरादिका
भीष्मजीके पास जाना और भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
करते
हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना
श्रीभीष्म
उवाच ।
इति
मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते
क्वचित् विहर्तुं
प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ॥ ३२ ॥
त्रिभुवनकमनं
तमालवर्णं
रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।
वपुरलककुलावृत
आननाब्जं
विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥ ३३ ॥
युधि
तुरगरजो विधूम्र विष्वक्
कचलुलितश्रमवारि अलङ्कृतास्ये ।
मम
निशितशरैर्विभिद्यमान
त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३४ ॥
भीष्मजीने
कहा—अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक
प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है,
यदुवंश-शिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता
हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए
ही कभी विहार करनेकी—लीला करनेकी इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार
कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है ॥ ३२ ॥ जिनका
शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर
सूर्य-रश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुखपर
घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं, उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्णमें
मेरी निष्कपट प्रीति हो ॥ ३३ ॥ मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छबि याद आती
है। उनके मुखपर लहराते हुए घुँघराले बाल घोड़ोंकी टापकी धूलसे मटमैले हो गये थे और
पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी
त्वचाको बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर,
अन्त:करण और आत्मा समर्पित हो जायँ ॥ ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से

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