||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला
अध्याय (पोस्ट.११)
देवर्षि
नारदकी भक्तिसे भेंट
भक्तिरुवाच
–
कथं
परीक्षिता राज्ञा स्थापितो ह्यशुचिः कलिः ।
प्रवृत्ते
तु कलौ सर्वसारः कुत्र गतो महान् ॥ ६३ ॥
करुणापरेण
हरिणापि अधर्म कथमीक्ष्यते ।
इमं
मे संशयं छिन्धि त्वद्वाचा सुखितास्म्यहम् ॥ ६४ ॥
नारद
उवाच –
यदि
पृष्टस्त्वया बाले प्रेमतः श्रवणं कुरु ।
सर्वं
वक्ष्यामि ते भद्रे कश्मलं ते गमिष्यति ॥ ६५ ॥
यदा
मुकुन्दो भगवान् क्ष्मां त्यक्त्वा स्वपदं गतः ।
तद्दिनात्
कलिरायातः सर्वसाधनबाधकः ॥ ६६ ॥
भक्तिने
कहा—राजा परीक्षित्ने इस पापी कलियुगको क्यों रहने दिया ? इसके आते ही सब वस्तुओंका सार न जाने कहाँ चला गया ? ॥ ६३ ॥ करुणामय श्रीहरिसे भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है ? मुने ! मेरा यह संदेह दूर कीजिये, आपके वचनोंसे मुझे
बड़ी शान्ति मिली है ॥ ६४ ॥
नारदजीने
कहा—बाले ! यदि तुमने पूछा है, तो प्रेमसे सुनो, कल्याणी ! मैं तुम्हें सब बताऊँगा और तुम्हारा दु:ख दूर हो जायगा ॥ ६५ ॥
जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोडक़र अपने परमधामको पधारे, उसी दिनसे यहाँ सम्पूर्ण साधनोंमें बाधा डालनेवाला कलियुग आ गया ॥ ६६ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से
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