Thursday, November 30, 2017

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य पहला अध्याय (पोस्ट.०२)


|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०२)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

नैमिषे सूतं आसीनं अभिवाद्य महामतिम् ।
कथामृत रसास्वाद कुशलः शौनकोऽब्रवीत् ॥ ३ ॥

शौनक उवाच –

अज्ञानध्वान्तविध्वंस कोटिसूर्यसमप्रभ ।
सूताख्याहि कथासारं मम कर्णरसायनम् ॥ ४ ॥
भक्तिज्ञानविरागाप्तो विवेको वर्धते महान् ।
मायामोहनिरासश्च वैष्णवैः क्रियते कथम् ॥ ५ ॥
इह घोरे कलौ प्रायो जीवश्चासुरतां गतः ।
क्लेशाक्रान्तस्य तस्यैव शोधने किं परायणम् ॥ ६ ॥
श्रेयसां यद् भवेत् श्रेयः पावनानां च पावनम् ।
कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् साधनं तद्‌वदाधुना ॥ ७ ॥
चिन्तामणिर्लोकसुखं सुरद्रुः स्वर्गसंपदम् ।
प्रयच्छति गुरुः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम् ॥ ८ ॥

एक बार भगवत्कथामृतका रसास्वादन करनेमें कुशल मुनिवर शौनकजीने नैमिषारण्य क्षेत्रमें विराजमान महामति सूतजीको नमस्कार करके उनसे पूछा ॥ ३ ॥----सूतजी ! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये करोड़ों सूर्यों के समान है। आप हमारे कानों के लिये रसायनअमृतस्वरूप सारगर्भित कथा कहिये ॥ ४ ॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाले महान् विवेककी वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णवलोग किस तरह इस माया-मोहसे अपना पीछा छुड़ाते हैं ? ॥ ५ ॥ इस घोर कलिकालमें जीव प्राय: आसुरी स्वभावके हो गये हैं, विविध क्लेशोंसे आक्रान्त इन जीवोंको शुद्ध (दैवीशक्तिसम्पन्न) बनानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? ॥ ६ ॥ सूतजी ! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइये, जो सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करनेवालोंमें भी पवित्र हो तथा जो भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा दे ॥ ७ ॥ चिन्तामणि केवल लौकिक सुख दे सकती है और कल्पवृक्ष अधिक-से-अधिक स्वर्गीय सम्पत्ति दे सकता है; परन्तु गुरुदेव प्रसन्न होकर भगवान्‌का योगिदुर्लभ नित्य वैकुण्ठ धाम दे देते हैं ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


श्रीमद्भागवत माहात्म्य पहला अध्याय (पोस्ट.०१)

|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
  
कृष्णं नारायणं वंदे कृष्णं वंदे व्रजप्रियम् |
कृष्णं द्वैपायनं वंदे कृष्णं वंदे पृथासुतम् ||

श्रीमद्भागवत माहात्म्य
पहला अध्याय (पोस्ट.०१)

देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट

सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे |
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयम नुमः||१||
यं प्रव्रजन्तमनुपेत्यमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तववोऽभिनेदुः
तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥ २ ॥

सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं, जो जगत् की  उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिकतीनों प्रकारके तापों का नाश करनेवाले हैं ॥ १ ॥ जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था तथा लौकिक-वैदिक कर्मोंके अनुष्ठानका अवसर भी नहीं आया था, तभी उन्हें अकेले ही संन्यास लेनेके लिये घरसे जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे—‘बेटा ! बेटा ! तुम कहाँ जा रहे हो ?’ उस समय वृक्षों ने तन्मय होनेके कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से उत्तर दिया था। ऐसे सर्वभूत-हृदयस्वरूप श्रीशुकदेवमुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से 


श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा भूमेः सुरेतरवरूथविमर्द...