||
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पहला
अध्याय (पोस्ट.०२)
देवर्षि
नारदकी भक्तिसे भेंट
नैमिषे
सूतं आसीनं अभिवाद्य महामतिम् ।
कथामृत
रसास्वाद कुशलः शौनकोऽब्रवीत् ॥ ३ ॥
शौनक
उवाच –
अज्ञानध्वान्तविध्वंस
कोटिसूर्यसमप्रभ ।
सूताख्याहि
कथासारं मम कर्णरसायनम् ॥ ४ ॥
भक्तिज्ञानविरागाप्तो
विवेको वर्धते महान् ।
मायामोहनिरासश्च
वैष्णवैः क्रियते कथम् ॥ ५ ॥
इह
घोरे कलौ प्रायो जीवश्चासुरतां गतः ।
क्लेशाक्रान्तस्य
तस्यैव शोधने किं परायणम् ॥ ६ ॥
श्रेयसां
यद् भवेत् श्रेयः पावनानां च पावनम् ।
कृष्णप्राप्तिकरं
शश्वत् साधनं तद्वदाधुना ॥ ७ ॥
चिन्तामणिर्लोकसुखं
सुरद्रुः स्वर्गसंपदम् ।
प्रयच्छति
गुरुः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम् ॥ ८ ॥
एक
बार भगवत्कथामृतका रसास्वादन करनेमें कुशल मुनिवर शौनकजीने नैमिषारण्य क्षेत्रमें
विराजमान महामति सूतजीको नमस्कार करके उनसे पूछा ॥ ३ ॥----सूतजी ! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये करोड़ों सूर्यों के
समान है। आप हमारे कानों के लिये रसायन—अमृतस्वरूप सारगर्भित
कथा कहिये ॥ ४ ॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाले
महान् विवेककी वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णवलोग किस तरह इस माया-मोहसे
अपना पीछा छुड़ाते हैं ? ॥ ५ ॥ इस घोर कलिकालमें जीव प्राय:
आसुरी स्वभावके हो गये हैं, विविध क्लेशोंसे आक्रान्त इन
जीवोंको शुद्ध (दैवीशक्तिसम्पन्न) बनानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? ॥ ६ ॥ सूतजी ! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइये, जो
सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करनेवालोंमें भी पवित्र हो तथा जो भगवान्
श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा दे ॥ ७ ॥ चिन्तामणि केवल लौकिक सुख दे सकती है और
कल्पवृक्ष अधिक-से-अधिक स्वर्गीय सम्पत्ति दे सकता है; परन्तु
गुरुदेव प्रसन्न होकर भगवान्का योगिदुर्लभ नित्य वैकुण्ठ धाम दे देते हैं ॥ ८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत्
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
1535 से