॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट१७)
जय-विजय
को सनकादि का शाप
कामं
भवः स्ववृजिनैर्निरयेषु नः स्तात् ।
चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत ।
वाचश्च
नस्तुलसिवद्यदि तेऽङ्घ्रिशोभाः ।
पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्ध्रः ॥ ४९ ॥
प्रादुश्चकर्थ
यदिदं पुरुहूत रूपं ।
तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दृशो नः ।
तस्मा
इदं भगवते नम इद्विधेम ।
योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीतः ॥ ५० ॥
भगवन्
! यदि हमारा चित्त भौंरे की तरह आपके चरण-कमलोंमें ही रमण करता रहे, हमारी वाणी तुलसी के समान आपके चरण-सम्बन्ध से ही सुशोभित हो और हमारे कान
आपकी सुयश-सुधा से परिपूर्ण रहें तो अपने पापों के कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि
योनियों में हो जाय—इसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है ॥ ४९ ॥
विपुलकीर्ति प्रभो ! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त
अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात्
भगवान् हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रोंके सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको
प्रणाम करते हैं ॥ ५० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
जयविजयोः सनकादिशापो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से