Wednesday, October 10, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कामं भवः स्ववृजिनैर्निरयेषु नः स्तात् ।
    चेतोऽलिवद्यदि नु ते पदयो रमेत ।
वाचश्च नस्तुलसिवद्यदि तेऽङ्‌घ्रिशोभाः ।
    पूर्येत ते गुणगणैर्यदि कर्णरन्ध्रः ॥ ४९ ॥
प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूपं ।
    तेनेश निर्वृतिमवापुरलं दृशो नः ।
तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम ।
    योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीतः ॥ ५० ॥

भगवन् ! यदि हमारा चित्त भौंरे की तरह आपके चरण-कमलोंमें ही रमण करता रहे, हमारी वाणी तुलसी के समान आपके चरण-सम्बन्ध से ही सुशोभित हो और हमारे कान आपकी सुयश-सुधा से परिपूर्ण रहें तो अपने पापों के कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि योनियों में हो जायइसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है ॥ ४९ ॥ विपुलकीर्ति प्रभो ! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात् भगवान्‌ हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रोंके सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे जयविजयोः सनकादिशापो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कुमारा ऊचुः –

योऽन्तर्हितो हृदि गतोऽपि दुरात्मनां त्वं ।
    सोऽद्यैव नो नयनमूलमनन्त राद्धः ।
यर्ह्येव कर्णविवरेण गुहां गतो नः ।
    पित्रानुवर्णितरहा भवदुद्‍भवेन ॥ ४६ ॥
तं त्वां विदाम भगवन्परमात्मतत्त्वं ।
    सत्त्वेन सम्प्रति रतिं रचयन्तमेषाम् ।
यत्तेऽनुतापविदितैर्दृढभक्तियोगैः ।
    उद्‍ग्रन्थयो हृदि विदुर्मुनयो विरागाः ॥ ४७ ॥
नात्यन्तिकं विगणयन्त्यपि ते प्रसादं ।
    किम्वन्यदर्पितभयं भ्रुव उन्नयैस्ते ।
येऽङ्ग त्वदङ्‌घ्रिशरणा भवतः कथायाः ।
    कीर्तन्यतीर्थयशसः कुशला रसज्ञाः ॥ ४८ ॥

सनकादि मुनियोंने कहाअनन्त ! यद्यपि आप अन्तर्यामीरूप से दुष्टचित्त पुरुषों के हृदय में भी स्थित रहते हैं, तथापि उनकी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं। किन्तु आज हमारे नेत्रोंके  सामने तो आप साक्षात् विराजमान हैं। प्रभो ! जिस समय आपसे उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्माजी ने आपका रहस्य वर्णन किया था, उसी समय श्रवणरन्ध्रों द्वारा हमारी बुद्धि में तो आप आ विराजे थे; किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का महान् सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ है ॥ ४६ ॥ भगवन् ! हम आपको साक्षात् परमात्मतत्त्व ही जानते हैं। इस समय आप अपने विशुद्ध सत्त्वमय विग्रह से अपने इन भक्तों को आनन्दित कर रहे हैं। आपकी इस सगुण-साकार मूर्ति को राग और अहंकार से मुक्त मुनिजन आपकी कृपादृष्टिसे  प्राप्त हुए सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा अपने हृदय में उपलब्ध करते हैं ॥ ४७ ॥ प्रभो ! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तनीय और सांसारिक दु:खों की निवृत्ति करनेवाला है। आपके चरणों की शरण में रहनेवाले जो महाभाग आपकी कथाओं के रसिक हैं, वे आपके आत्यन्तिक प्रसाद मोक्षपद को भी कुछ अधिक नहीं गिनते; फिर जिन्हें आपकी जरा-सी टेढ़ी भौंह ही भयभीत कर देती है, उन इन्द्रपद आदि अन्य भोगोंके विषय में तो कहना ही क्या है ॥ ४८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

जय-विजय को सनकादि का शाप

ते वा अमुष्य वदनासितपद्मकोशम् ।
    उद्वीक्ष्य सुन्दरतराधरकुन्दहासम् ।
लब्धाशिषः पुनरवेक्ष्य तदीयमङ्‌घ्रि ।
    द्वन्द्वं नखारुणमणिश्रयणं निदध्युः ॥ ४४ ॥
पुंसां गतिं मृगयतामिह योगमार्गैः ।
    ध्यानास्पदं बहुमतं नयनाभिरामम् ।
पौंस्नं वपुर्दर्शयानमनन्यसिद्धैः ।
    औत्पत्तिकैः समगृणन्युतमष्टभोगैः ॥ ४५ ॥

भगवान्‌ का मुख नीलकमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हाससे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये। और फिर पद्मरागके समान लाल-लाल नखों से सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे ॥ ४४ ॥ इसके पश्चात् वे मुनिगण अन्य साधनों से सिद्ध न होनेवाली, स्वाभाविक अष्टसिद्धियों से सम्पन्न श्रीहरि की स्तुति करने लगेजो योगमार्गद्वारा मोक्षपद की खोज करनेवाले पुरुषों के लिये उनके ध्यान का विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्द की वृद्धि करनेवाला पुरुषरूप प्रकट करते हैं ॥ ४५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

जय-विजय को सनकादि का शाप

अत्रोपसृष्टमिति चोत्स्मितमिन्दिरायाः ।
    स्वानां धिया विरचितं बहुसौष्ठवाढ्यम् ।
मह्यं भवस्य भवतां च भजन्तमङ्गं ।
    नेमुर्निरीक्ष्य न वितृप्तदृशो मुदा कैः ॥ ४२ ॥
तस्यारविन्दनयनस्य पदारविन्द ।
    किञ्जल्कमिश्रतुलसीमकरन्दवायुः ।
अन्तर्गतः स्वविवरेण चकार तेषां ।
    सङ्क्षोभमक्षरजुषामपि चित्ततन्वोः ॥ ४३ ॥

भगवान्‌का श्रीविग्रह बड़ा ही सौन्दर्यशाली था। उसे देखकर भक्तोंके मनमें ऐसा वितर्क होता था कि इसके सामने लक्ष्मीजी का सौन्दर्याभिमान भी गलित हो गया है। ब्रह्माजी कहते हैंदेवताओ ! इस प्रकार मेरे, महादेवजी के और तुम्हारे लिये परम सुन्दर विग्रह धारण करने वाले श्रीहरि को देखकर सनकादि मुनीश्वरों ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छवि को निहारते-निहारते उनके नेत्र तृप्त नहीं होते थे ॥ ४२ ॥
सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहा करते थे। किन्तु जिस समय भगवान्‌ कमलनयन के चरणारविन्दमकरन्द से मिली हुई तुलसीमञ्जरी के गन्ध से सुवासित वायु ने नासिका- रन्ध्रोंके द्वारा उनके अन्त:करणमें प्रवेश किया, उस समय वे अपने शरीरको सँभाल न सके और उस दिव्य गन्ध ने उनके मनमें भी खलबली पैदा कर दी ॥ ४३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

जय-विजय को सनकादि का शाप

कृत्स्नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधाम ।
    स्नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम् ।
श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया स्वः ।
    चूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥ ३९ ॥
पीतांशुके पृथुनितम्बिनि विस्फुरन्त्या ।
    काञ्च्यालिभिर्विरुतया वनमालया च ।
वल्गुप्रकोष्ठवलयं विनतासुतांसे ।
    विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जम् ॥ ४० ॥
विद्युत्क्षिपन् मकरकुण्डलमण्डनार्ह ।
    गण्डस्थलोन्नसमुखं मणिमत्किरीटम् ।
दोर्दण्डषण्डविवरे हरता परार्ध्य ।
    हारेण कन्धरगतेन च कौस्तुभेन ॥ ४१ ॥

प्रभु समस्त सद्गुणोंके आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपासुधा की वर्षा कर रहे हैं। अपनी स्नेहमयी चितवन से वे भक्तों का हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्ष:स्थलपर स्वर्णरेखा के रूप में जो साक्षात् लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे मानो वे समस्त दिव्यलोकों के चूडामणि वैकुण्ठधाम को सुशोभित कर रहे थे ॥ ३९ ॥ उनके पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बों पर झिलमिलाती हुई करधनी और गले में भ्रमरों से मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयों में सुन्दर कंगन पहने अपना एक हाथ गरुडज़ी के कंधेपर रख दूसरे से कमलका पुष्प घुमा रहे थे ॥ ४० ॥ उनके अमोल कपोल बिजली की प्रभा को भी लजानेवाले मकराकृति कुण्डलों की शोभा बढ़ा रहे थे, उभरी हुई सुघड़ नासिका थी, बड़ा ही सुन्दर मुख था, सिरपर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओं के बीच महामूल्यवान् मनोहर हार की और गले में कौस्तुभमणि की अपूर्व शोभा थी ॥ ४१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

जय-विजय को सनकादि का शाप

एवं तदैव भगवान् अरविन्दनाभः ।
    स्वानां विबुध्य सदतिक्रममार्यहृद्यः ।
तस्मिन् यन्ययौ परमहंसमहामुनीनाम् ।
    अन्वेषणीयचरणौ चलयन् सहश्रीः ॥ ३७ ॥
तं त्वागतं प्रतिहृतौपयिकं स्वपुम्भिः ।
    तेऽचक्षताक्षविषयं स्वसमाधिभाग्यम् ।
हंसश्रियोर्व्यजनयोः शिववायुलोलः ।
    शुभ्रातपत्रशशिकेसरशीकराम्बुम् ॥ ३८ ॥

इधर जब साधुजनों के हृदयधन भगवान्‌ कमलनाभ को मालूम हुआ कि मेरे द्वारपालों ने सनकादि साधुओं का अनादर किया है, तब वे लक्ष्मीजी के सहित अपने उन्हीं श्रीचरणोंसे  चलकर ही, वहाँ पहुँचे, जिन्हें परमहंस मुनिजन भी ढूँढ़ते रहते हैंसहज में पाते नहीं, ॥ ३७ ॥ सनकादि ने देखा कि उनकी समाधि के विषय श्रीवैकुण्ठनाथ स्वयं उनके नेत्रगोचर होकर पधारे हैं, उनके साथ-साथ पार्षदगण छत्र-चामरादि लिये चल रहे हैं तथा प्रभुके दोनों ओर राजहंस के पंखों के समान दो श्वेत चँवर डुलाये जा रहे हैं। उनकी शीतल वायुसे उनके श्वेत छत्रमें लगी हुई मोतियोंकी झालर हिलती हुई ऐसी शोभा दे रही है मानो चन्द्रमाकी किरणोंसे अमृतकी बूँदें झर रही हों ॥ ३८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरं ।
    तं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगैः ।
सद्यो हरेरनुचरावुरु बिभ्यतस्तत् ।
    पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥ ३५ ॥
भूयादघोनि भगवद्‌भिरकारि दण्डो ।
    यो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम् ।
मा वोऽनुतापकलया भगवत्स्मृतिघ्नो ।
    मोहो भवेदिह तु नौ व्रजतोरधोऽधः ॥ ३६ ॥

सनकादि के ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणों के शाप को किसी भी प्रकार के शस्त्रसमूह से निवारण होने योग्य न जान कर श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभाव से उनके चरण पकडक़र पृथ्वी पर लोट गये। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं ॥ ३५ ॥ फिर उन्होंने अत्यन्त आतुर होकर कहा—‘भगवन् ! हम अवश्य अपराधी हैं; अत: आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हमने भगवान्‌ का अभिप्राय न समझकर उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्डसे सर्वथा धुल जायगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जानेपर भी हमें भगवत्स्मृति को नष्ट करनेवाला मोह न प्राप्त हो ॥ ३६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

जय-विजय को सनकादि का शाप

न ह्यन्तरं भगवतीह समस्तकुक्षौ ।
    आत्मानमात्मनि नभो नभसीव धीराः ।
पश्यन्ति यत्र युवयोः सुरलिङ्‌गिनोः किं ।
    व्युत्पादितं ह्युदरभेदि भयं यतोऽस्य ॥ ३३ ॥
तद्वाममुष्य परमस्य विकुण्ठभर्तुः ।
    कर्तुं प्रकृष्टमिह धीमहि मन्दधीभ्याम् ।
लोकानितो व्रजतमन्तरभावदृष्ट्या ।
    पापीयसस्त्रय इमे रिपवोऽस्य यत्र ॥ ३४ ॥

(सनकादि मुनि कहते हैं) भगवान्‌ के उदर में यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है; इसलिये यहाँ रहनेवाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्रीहरि से अपना कोई भेद नहीं देखते, बल्कि महाकाश में घटाकाश की भाँति उनमें अपना अन्तर्भाव देखते हैं। तुम तो देव-रूपधारी हो; फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान्‌ के साथ कुछ भेदभाव के कारण होनेवाले भय की कल्पना कर ली ॥ ३३ ॥ तुम हो तो इन भगवान्‌ वैकुण्ठनाथ के पार्षद, किन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द है। अतएव तुम्हारा कल्याण करने के लिये हम तुम्हारे अपराध के योग्य दण्डका विचार करते हैं। तुम अपनी भेदबुद्धि के दोषसे इस वैकुण्ठलोक से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ, जहाँ काम, क्रोध, लोभप्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते हैं ॥ ३४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तान्वीक्ष्य वातरशनांश्चतुरः कुमारान् ।
    वृद्धान्दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान् ।
वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौ ।
    तेजो विहस्य भगवत् प्रतिकूलशीलौ ॥ ३० ॥
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमानाः ।
    स्वर्हत्तमा ह्यपि हरेः प्रतिहारपाभ्याम् ।
ऊचुः सुहृत्तमदिदृक्षितभङ्ग ईषत् ।
    कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षाः ॥ ३१ ॥

मुनय ऊचुः ।
को वामिहैत्य भगवत् परिचर्ययोच्चैः ।
    तद्धर्मिणां निवसतां विषमः स्वभावः ।
तस्मिन् प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे वां ।
    को वात्मवत् कुहकयोः परिशङ्कनीयः ॥ ३२ ॥

वे चारों कुमार (सनकादि मुनि)  पूर्ण तत्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्माकी सृष्टि में आयु में सबसे बड़े होने पर भी देखने में पाँच वर्ष के बालकों-से जान पड़ते थे और दिगम्बर-वृत्तिसे (नंग-धड़ंग) रहते थे। उन्हें इस प्रकार नि:सङ्कोचरूप से भीतर जाते देख उन द्वारपालोंने भगवान्‌के शील-स्वभावके विपरीत सनकादि के तेज की हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया, यद्यपि वे ऐसे दुर्व्यवहार के योग्य नहीं थे ॥ ३० ॥ जब उन द्वारपालों ने वैकुण्ठवासी देवताओं के सामने पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारों को इस प्रकार रोका, तब अपने प्रियतम प्रभु के दर्शनों में विघ्र पडऩे के कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोध से लाल हो उठे और वे इस प्रकार कहने लगे ॥ ३१ ॥
मुनियोंने कहाअरे द्वारपालो ! जो लोग भगवान्‌ की महती सेवा के प्रभाव से इस लोक को प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान्‌ के समान ही समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हींमें से हो, किन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है ? भगवान्‌ तो परम शान्तस्वभाव हैं, उनका किसीसे विरोध भी नहीं है; फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिसपर शङ्का की जा सके ? तुम स्वयं कपटी हो, इसीसे अपने ही समान दूसरोंपर शङ्का करते हो ॥ ३२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तस्मिन्नतीत्य मुनयः षडसज्जमानाः ।
    कक्षाः समानवयसावथ सप्तमायाम् ।
देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य ।
    केयूरकुण्डलकिरीटविटङ्कवेषौ ॥ २७ ॥
मत्तद्विरेफवनमालिकया निवीतौ ।
    विन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये ।
वक्त्रं भ्रुवा कुटिलया स्फुटनिर्गमाभ्यां ।
    रक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥ २८ ॥
द्वार्येतयोर्निविविशुर्मिषतोरपृष्ट्वा ।
    पूर्वा यथा पुरटवज्रकपाटिका याः ।
सर्वत्र तेऽविषमया मुनयः स्वदृष्ट्या ।
    ये सञ्चरन्त्यविहता विगताभिशङ्काः ॥ २९ ॥

भगवद्दर्शन की लालसा से अन्य दर्शनीय सामग्री की उपेक्षा करते हुए वैकुण्ठधाम की छ: ड्यौढिय़ाँ पार करके जब वे (सनकादि मुनि) सातवीं पर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयुवाले देवश्रेष्ठ दिखलायी दियेजो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषणों से अलङ्कृत थे ॥ २७ ॥ उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच में मतवाले मधुकरों से गुञ्जायमान वनमाला सुशोभित थी तथा बाँकी भौंहें, फडक़ते हुए नासिकारन्ध्र और अरुण नयनों के कारण उनके चेहरेपर कुछ क्षोभके-से चिह्न दिखायी दे रहे थे ॥ २८ ॥ उनके इस प्रकार देखते रहनेपर भी वे मुनिगण उनसे बिना कुछ पूछताछ किये, जैसे सुवर्ण और वज्रमय किवाड़ोंसे युक्त पहली छ: ड्यौढ़ी लाँघकर आये थे, उसी प्रकार उनके द्वारमें भी घुस गये। उनकी दृष्टि तो सर्वत्र समान थी और वे नि:शङ्क होकर सर्वत्र बिना किसी रोक-टोकके विचरते थे ॥ २९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

जय-विजय को सनकादि का शाप

यच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या ।
    दूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीलाः ।
भर्तुर्मिथः सुयशसः कथनानुराग ।
    वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताङ्गाः ॥ २५ ॥
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्यं ।
    दिव्यं विचित्रविबुधाग्र्यविमानशोचिः ।
आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग ।
    मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥ २६ ॥

देवाधिदेव श्रीहरि का निरन्तर चिन्तन करते रहने के कारण जिनसे यमराज दूर रहते हैं, आपस में प्रभुके सुयशकी चर्चा चलने पर अनुरागजन्य विह्वलतावश जिनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है तथा शरीरमें रोमाञ्च हो जाता है और जिनके-से शील-स्वभावकी हमलोग भी इच्छा करते हैंवे परमभागवत ही हमारे लोकोंसे ऊपर उस वैकुण्ठधाममें जाते हैं ॥ २५ ॥ जिस समय सनकादि मुनि विश्वगुरु श्रीहरि के निवासस्थान, सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओं के विचित्र विमानोंसे विभूषित उस परम दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठधाम में अपने योगबल से पहुँचे, तब उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ ॥ २६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा भूमेः सुरेतरवरूथविमर्द...