Friday, April 13, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

भगवान्‌ के लीलावतारों की कथा

कालेन मीलितधियामवमृश्य नॄणां ।
    स्तोकायुषां स्वनिगमो बत दूरपारः ।
आविर्हितस्त्वनुयुगं स हि सत्यवत्यां ।
    वेदद्रुमं विटपशो विभजिष्यति स्म ॥ ३६ ॥
देवद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां ।
    पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतूर्भिः ।
लोकान् घ्नतां मतिविमोहमतिप्रलोभं ।
    वेषं विधाय बहु भाष्यत औपधर्म्यम् ॥ ३७ ॥

समय के फेर से लोगों की समझ कम हो जाती है, आयु भी कम होने लगती है। उस समय जब भगवान्‌ देखते हैं कि अब ये लोग मेरे तत्त्व को बतलाने वाली वेदवाणी को समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्प में सत्यवती के गर्भसे व्यास के रूपमें प्रकट होकर वे वेदरूपी वृक्ष का विभिन्न शाखाओं के रूपमें विभाजन कर देते हैं ॥ ३६ ॥
देवताओं के शत्रु दैत्यलोग भी वेदमार्ग का सहारा लेकर मयदानव के बनाये हुए अदृश्य वेगवाले नगरों में रहकर लोगों का सत्यानाश करने लगेंगे, तब भगवान्‌ लोगोंकी बुद्धि में मोह और अत्यन्त लोभ उत्पन्न करने वाला वेष धारण करके बुद्ध के रूप में बहुत-से उपधर्मों का उपदेश करेंगे ॥ ३७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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