Sunday, March 25, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओंकी उपासना
तथा भगवद्भक्ति के प्राधान्य का निरूपण

बिले बतोरुक्रमविक्रमान् ये
    न शृण्वतः कर्णपुटे नरस्य ।
जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत
    न चोपगायत्युरुगायगाथाः ॥ २० ॥
भारः परं पट्टकिरीटजुष्टं
    अप्युत्तमाङ्गं न नमेन् मुकुंदम् ।
शावौ करौ नो कुरुते सपर्यां
    हरेर्लसत्काञ्चनकङ्कणौ वा ॥ २१ ॥
बर्हायिते ते नयने नराणां
    लिङ्गानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये ।
पादौ नृणां तौ द्रुमजन्मभाजौ
    क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरेर्यौ ॥ २२ ॥

(शौनकजी कहते हैं) सूतजी ! जो मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कथा कभी नहीं सुनता, उसके कान बिलके समान हैं। जो जीभ भगवान्‌ की लीलाओं का गायन नहीं करती, वह मेढक की जीभ के समान टर्र-टर्र करने- वाली है; उसका तो न रहना ही अच्छा है ॥ २० ॥ जो सिर कभी भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणों में झुकता नहीं, वह रेशमी वस्त्र से सुसज्जित और मुकुट से युक्त होनेपर भी बोझामात्र ही है। जो हाथ भगवान्‌ की सेवा-पूजा नहीं करते, वे सोने के कंगन से भूषित होने पर भी मुर्दे के हाथ हैं ॥ २१ ॥ जो आँखें भगवान्‌ की याद दिलानेवाली मूर्ति, तीर्थ, नदी आदि का दर्शन नहीं करतीं, वे मोरों की पाँख में बने हुए आँखों के चिह्न के समान निरर्थक हैं। मनुष्यों के वे पैर चलने की शक्ति रखनेपर भी न चलने वाले पेड़ों-जैसे ही हैं, जो भगवान्‌ की लीला-स्थलियों की यात्रा नहीं करते ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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