Tuesday, March 13, 2018

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा
तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन

स्थिरं सुखं चासनमास्थितो यतिः
    यदा जिहासुरिममङ्ग लोकम् ।
काले च देशे च मनो न सज्जयेत्
    प्राणान् नियच्छेन्मनसा जितासुः ॥ १५ ॥
मनः स्वबुद्ध्याऽमलया नियम्य
    क्षेत्रज्ञ एतां निनयेत् तमात्मनि ।
आत्मानमात्मन्यवरुध्य धीरो
    लब्धोपशान्तिर्विरमेत कृत्यात् ॥ १६ ॥
न यत्र कालोऽनिमिषां परः प्रभुः
    कुतो नु देवा जगतां य ईशिरे ।
न यत्र सत्त्वं न रजस्तमश्च
    न वै विकारो न महान् प्रधानम् ॥ १७ ॥
परं पदं वैष्णवमामनन्ति
    तद् यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः ।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
    हृदोपगुह्यार्हपदं पदे पदे ॥ १८ ॥

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं ) परीक्षित्‌ ! जब योगी पुरुष इस मनुष्य-लोकको छोडऩा चाहे, तब देश और काल में मनको न लगाये। सुखपूर्वक स्थिर आसन से बैठकर प्राणों को जीतकर मनसे  इन्द्रियों का संयम करे ॥ १५ ॥ तदनन्तर अपनी निर्मल बुद्धिसे मनको नियमित करके मनके साथ बुद्धिको क्षेत्रज्ञमें और क्षेत्रज्ञको अन्तरात्मामें लीन कर दे। फिर अन्तरात्माको परमात्मामें लीन करके धीर पुरुष उस परम शान्तिमय अवस्थामें स्थित हो जाय। फिर उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता ॥ १६ ॥ इस अवस्थामें सत्त्वगुण भी नहीं है, फिर रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या है। अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृतिका भी वहाँ अस्तित्व नहीं है। उस स्थितिमें जब देवताओंके नियामक कालकी भी दाल नहीं गलती, तब देवता और उनके अधीन रहनेवाले प्राणी तो रह ही कैसे सकते हैं ? ॥ १७ ॥ योगीलोग यह नहीं, यह नहीं’—इस प्रकार परमात्मासे भिन्न पदार्थोंका त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थोंमें आत्मबुद्धिका त्याग करके हृदयके द्वारा पद-पदपर भगवान्‌के जिस परम पूज्य स्वरूपका आलिङ्गन करते हुए अनन्य प्रेमसे परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान्‌ विष्णुका परम पद हैइस विषयमें समस्त शास्त्रोंकी सम्मति है ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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